जनेऊ पहनने के लाभ
पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया
जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे
स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत
छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही
बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों
पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध
पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल
विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र
विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती
है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों
सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता
है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर
धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से
उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती
है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
यज्ञोपवीत
(जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने
का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक
पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा
है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर
कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका
स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो
तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर
यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त
होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित
विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न
किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध
प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म
रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का
पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में
माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न,
धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के
कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है।
यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और
पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का
संस्कार
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति
बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार
किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को
विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी
जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों
वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन
सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।
अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये
अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़
दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने
से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि
जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए
अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत
पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण
कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या
ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात्
पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि
हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना
है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 -
27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों
का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 =
36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक
है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 =
11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति
और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या
के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम
अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति
हो जाती है|यथा-निवीनी
दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं
मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था
को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और
कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह
है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और
उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का
वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में
अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की
संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव
होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार
स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो
जाता है। बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा
बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान
पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज
अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज
अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग
करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
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