Thursday, 19 September 2013

हमारा किनारा 


क्या शाम थी जब बात गुमनाम थी 

आँखों में सरारत और दिल में कुछ बात थी 

कहने को तो बहोत कुछ था 

पर कमबख्त आवाज अनजान थी 

वो बात कही नहीं जिसका इंतज़ार था 
पर खामोस निगाहों में एक ही सवाल था 
कब खामोस नदियाँ में तूफ़ान आएगा 
और कब ये दिल हमें समझा पायेगा 

कहता है रोज की आज तो बात कह दूंगा 
पर बेचारा बस  सोच के रह जाता है क़ि 

तुम्हारी आँखों में बस जाने को दिल करता है 
आवाज तो है पर रुक जाने को दिल करता है


चमकतें हैं सितारें तो ये ख्याल आ जाता है 
की तुम्हें इनसे छुपाने को दिल करता हैं  

ऐसी ही तो कहानी है इस किनारे की 
जो सब कुछ अपने पास रखती है ;
मैं  कहता हूँ की चली जा यहाँ से 
पर एक ही बात कहती है ,
मुज्मे वो है जो तुम रखना नहीं चाहतें 
और मैं वो हूँ जिसमे तुम बसना नहीं चाहतें।